खुदा ना सही खुदा से कम भी तो नही हां तुम्ही आरबीएसके............
राजसमंदए 29 जून। कुछ अजीब लग रहा है ना ये आरबीएसके और खुदा ये क्या बेवकूफी है पर आप ही बताओं गलत कहां है। आपकों लगता है सरकारी कार्यक्रमों के बारें ऐसे कैसे लिखा जा सकता है तो पहले ही गुस्ताखी माफ।
लेकिन दिल से यही अल्फाज निकले तो मेरा क्या कसूर। पर हां आपको बता दूं यह कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं जिसकी उपलब्धियां गिना कर इति श्री कर दी जायें। इस कार्यक्रम ने अल्फाजों से परें कई दिलो को सुकूं दिया है। यदि आप मां . बाप है या आप बेटा बेटी है तो फिर क्या कभी कोई अल्फाज इन रिश्तो को परिभाषित कर सकता है ये एक अहसास ही है जो हम सभी जी रहें है।
ना जाने गुड न्यूज सुनते ही कब कैसे मां बाप ख्वाब बुनना शुरू कर देते है ए हां घर में दादी अम्मा भी तो खुश खबरी को कहां रोक पाती है घर के चौबारे में बैठ गली में हर आने जाने वाले को रोक . रोक कर बड़ी लजीज मिठाईयां और लड्डू ना सहीए गुड़ धनियां ही बांटना शुरू कर देती है। भुआ को खबर मिलते ही अपने घर में कहीं से पुरानी बची हुई ऊन ढूंढ स्वेटर और मौजे तैयार कर लेती है। दादा की चाल में एक ठसक सी पैदा हो जाती है। जी हां ये सब अनायास होता है चाहें गरीब हो या अमीर अहसास सबकें एक जैसे होते है नयें मेहमान के आने की तैयारी करनी नही पड़ती हो जाती है। अब चाहंे मंा गरीब हो अमीर उसका मन एक जैसा होता है नाए सभी को खुश देख वह तो हया से रूबरू हो स्मित मुस्कान से सारे जहां की खुशीयां अपनी झोली में भर लेती है।
लेकिन हम उस जलजले की कल्पना नहीं कर सकते जब एक गरीब के घर कोई नया मेहमान किसी शारीरिक विकृति या बड़ी बिमारी के साथ पैदा होता है। कभी कभी तो यह बिमारीयां काफी दिनो बाद पता चलती है। मां . बाप के सारें अरमान सारी खुशीयां एक पल में ही काफूर हो जाती है। पूरा परिवार सदमें में आ जाता है पर रूपयें पैसे की तंगी में कैसे अपने बच्चे का इलाज करवायें यह यक्ष प्रश्न हमेशा उनको सालता रहता है। अब गांव ढाणी में वह बच्चा किसी आंगनवाड़ी और बाद में किसी सरकारी स्कूल में होता है। वहां वह अपनी शारीरिक अक्षमताओं एवं विकृतियों के कष्टो के साथ जैसे तैसे जी रहा होता है आस पास वालो के लियें दया का पात्र बन जाता है।
जिदंगी एक पटरी नहीं होती जो एक सीध में चलती जायें। वैसे देखा जायें तो दुनिया के लोगो को दो भागो में ही बांटना चाहियें एक अमीर जिनकों सब कुछ उपलब्ध है दूसरा गरीब जो हर रोज अपने परिवार की रोटी की चिंता में ही जीवन को ढेर कर देता है।
पर ये आज में क्या और क्यूं लिख रहा हूं आप सभी को उस कार्यक्रम से रूबरू करवाने जो एक ऐसी संवेदना के साथ चल रहा है जिसें हम कहीं भुला बैठे है। हम अपनी दुनियां में व्यस्त हैए हमारे अपने लक्ष्य अपनी महत्वकांक्षायें है जो है उससें ज्यादा की चाह ने हम सभी को एक रेस में दौड़ा रखा है।
हमें नहीं पता दूर किसी ढाणी में उस आदमी का दर्द जो अपनी झाड़ फूस की टापरी में कैसे अपने परिवार को पालने के लियें जतन कर रहा है। अब जो दो जून की रोटी के लियें जुगाड़ कर रहा हो उसके बच्चों में कोई गंभीर बिमारी या जन्म से ही दोष हो तो वह कहां से इनका इलाज करवायें। कौन उसका इलाज मुफ्त में करेगाए इलाज के लियें वह पैसा कहां से लायेगा। अपने जिगर के टूकड़ो को कौन ऐसे ही ऊपरवाले के भरोसे छोड़ना चाहता है लेकिन कौन है जो उसकी बेबसी को समझे। आरबीएसके उन गुरबत में जीने वालो के जीवन में एक अपरिमित हर्ष का अनदेखा रंग भर रहा है और उनके बेटो . बेटीयों के अनमोल बचपन को लौटा रहा है।
कितना अच्छा है ना कि केवल इसी के लियें एक प्रतिबद्ध प्रशिक्षित स्वास्थ्य टीम हर गांव ढाणी के आंगनबाड़ी और स्कूल में जा रही है जहां ये गरीब बच्चें जिदंगी का पहला पाठ शुरू कर रहें हैै। बच्चों की स्वास्थ्य जांच कर बिमारीयों के अनुसार उनको उच्च चिकित्सा संस्थानो पर रेफर कर इलाज करवाया जा रहा है।
ना जाने कैसी . कैसी गंभीर बिमारीयांे ने इन गरीब मासूम नोनिहालों का जीवन नारकीय बना रखा था। किसी बच्चे के दिल की बीमारी, किसी के होंठ व तालु कटे हुयें , किसी के हाथ पैर मुडे़ हुयें है , डाउन सिंड्रोम न्यूरो मोटर डिस ऑर्डरए न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट, मोतियाबिंद, बहरापन ,चर्म रोग , ओटिज्म जैसी कई अनगिनत बिमारीयों का इलाज गुणवत्तायुक्त सरकारी एवं प्राईवेट हॉस्पीटल में किया जा रहा है।
बिना किसी लालफिताशाहीए कोई बड़ी प्रक्रिया के बिल्कुल कैशलेस उपचार ने हजारों मासूम बच्चों के जीवन की राह को आसान कर दिया है। कार्यक्रम का असर लफ्जो से इतर केवल उन परिजनों के आंखो में देखना भर काफी है जिनके लख्ते जिगरों का इलाज हुआ है। यह कार्यक्रम गुरबत में जीने वाले परिवारों के लियें खुदा ना सही खुदा से कम भी तो नहीं ही है।